शुक्रवार, 29 अप्रैल 2016

न्यायाधीश जी ,बातें कुछ और भी

***************हाल ही में न्यायाधीशों के सम्मलेन में भारत के मुख्य न्यायाधीश श्री टीएस ठाकुर, प्रधान मन्त्री की उपस्थिति में, यह उल्लेख करते भाउक हो उठे कि वादों की तुलना में न्याय देने वालों की संख्या मानकों से बहुत कम है। स्पष्टतः उनकी वाणी से न्याय के प्रति हो रहे अन्याय की पीड़ा झलक उठी थी। केंद्र और राज्य सरकारों की, जनहित में,  यही संवेदनशीलता होगी कि तत्काल न्यायाधीशों की रिक्त पदों पर नियुक्तियाँ सुनिश्चित करते हुए न्याय आयोग की संस्तुतियाँ लागू करने की कार्यवाही करें। लाख बुराइयों के होते हुए भी इस देश की न्याय व्यवस्था आम आदमी के लिए लाठी का सहारा है। यह बात दीगर है कि यह लाठी अब बोझ बनती जा रही है और धन तथा संसाधन के अभाव में या तो उल्टे उसी के पीठ पर पड़ने लगी है या उसकी अगली पीढ़ी को उत्तरदायित्व रूप में दी जा रही है।दूसरे देशों की आबादी एवँ  जजों के अनुपात का तर्क न देकर बेहतर होगा कि अपनी देशी परस्थितियों यथा वादों को बढ़ाने में पुलिस व वकीलों की भूमिका ,न्यायालयों में  पैठ बना चुकी दलाली ,प्रति वकील वादों की  संख्या ,नियुक्तियों में वंशवादी अधिपत्य तथा  न्याय  पर पैसे का प्रभुत्व इत्यादि की समग्र समीक्षा होनी चाहिए।क्या न्यायाधीश महोदय यह भरोसा देने की स्थिति में हैं कि यदि न्यायाधीशों की अपेक्षित संख्याबल पूरी हो जाती है तो न्याय व्यवस्था में व्याप्त खामियाँ दूर हो जायगीं ,शायद बिल्कुल नहीं।
भारतीय लोकतंत्र तो राजनीति में सशक्त घुसपैठ बना चुके वंशवाद से बुरी तरह पीड़ित है ही ;न्याय तंत्र भी इससे अछूता नहीं है। जज के वंशज का जज होना हमारी न्यायपालिका में आम बात है। वैसे तो ये माननीय गैर राजनीतिक होते हैं परन्तु इनमें कुछ लोग ऐसे रहे हैं जिनका परिवार या वह स्वयं, किसी दल या नेता विशेष से उपकृत होकर, माननीय बना होता है।अतः जब भी प्रति उपकार का समय आता है ,ऐसे माननीय इंसाफ के तराजू को किनारे करने से नहीं चूकते।अपवादों को छोड़ दिया जाय तो मध्य व आधार स्तर के माननीयों से लेकर अधीनस्थों तक ,ब्रांडेड वकीलों से दलालीरत वकीलों तक सभी दिनोदिन मालामाल  होते जा रहे हैं। यहाँ तक कि लाखों वकील व पुलिस वाले भी खूब फल फूल रहे हैं। बदले में भिखारी सा दिखते लाखों वादी वकीलों से कुटिल वादा व न्यायालयों से तारीख पर तारीख पा रहे हैं।भारतीय न्यायलय ही वे स्थान हैं जहाँ  शोषक एवं शोषित के बीच का अंतर हर कदम पर साफ दिखता है।
***************चूँकि भारतीय न्यायिक व्यवस्था में लाखों लोगों को प्रत्यक्ष या परोक्ष रोजगार मिला हुआ है और सभी किसी न किसी रूप में न्याय नामक उत्पाद बेच रहे हैं ,अतः वे हर संभव प्रयास से उपभोक्ताओं की संख्या व उन तक पकड़ बढ़ायें गे ही।अद्यतन स्थिति यही है कि जब कोई स्नातक किसी भी क्षेत्र में सफल नहीं हो पाता है तो कानून की पढाई कर वकील बन जाता है। वकालत में संख्या का कोई परिसीमन ही नहीं है।वकील नहीं हुए तो भी कोई बात नहीं ,न्याय की दलाली में लग जाइये।निःसन्देह देश में वादों की संख्या बहुत तीव्रता से बढ़ रही है परन्तु तथ्य यह है कि संख्या बढ़ाई जा रही है। जब भी किसी परिवार में या दो या दो से अधिक लोगों में विवाद पनपता  है ,न्याय रूपी उत्पाद बेचने वाले सक्रिय हो उठते हैं और जब वादी प्रतिवादी न्याय केलिए निकलते हैं ,कतिपय न्याय देने वाले चाहे ग्रामप्रधान हों या सरपंच ,स्थानीय पुलिस वाले हों या प्रशासन के लोग,आर्थिक दोहन के लिए विवाद को हवा पानी देकर चाँड़ने लगते हैं और आर्थिक सेवा करने वाले पक्ष के हित साधन में संलग्न हो जाते हैं। फिर मरता क्या न करता। पीड़ित न्यायलय पहुँचता है। वहाँ न्याय दिलाने के नाम पर किसी वकील के चंगुल में फँसता है और शुरू हो जाता है तारीख पर तारीख का अंत हीन क्रम। लम्बी लड़ाई तथा धन सम्मान सब कुछ गँवाने के बाद या तो कालातीत जय मिलता है या पैसा प्रेरित पराजय। पराजय की स्थिति में आगे तक लड़ाने वाले एक से बढ़ कर एक वकील सामने उपस्थित हो जाते हैं।यही है भारत में आम नागरिक के लिए अनन्त न्यायिक व्यवस्था।
***************हमारे देश में उपभोक्ता संरक्षण कानून है ,मंत्रालय है ,विवाद सुलझाने वाले पीठ हैं परन्तु न्याय नामक उत्पाद के उपभोक्ताओं ,जिन्हे उनकी शब्दावली में वादी या प्रतिवादी कहते हैं ,के हित संरक्षण की कोई नहीं सोचता। न सरकार न उच्चतम न्यायलय में यह सुनिश्चित करने करने का साहस है कि किसी भी वाद का निस्तारण अधिकतम कितने समय में किसी अदालत  में होना अनिवार्य होगा ,एक वाद में अधिकतम कितनी तारीखें पड़ सकें गी या बीमारी आदि कारणों से अनुपस्थिति का लाभ कितनी बार दिया जाय गा। वादियों व प्रतिवादियों का वर्षोंवर्ष तक कोई केस लड़ने में जो मानसिक ,शारीरिक एवँ आर्थिक शोषण होता है उसके लिए देश में कोई क्षतिपूर्ति व्यवस्था नहीं है। इस देश में ऐसे भी लम्बित वाद हैं जो एक पीढ़ी के बाद दूसरी या तीसरी पीढ़ी के लोग लड़ रहे हैं। इससे बड़ी न्याय की निष्ठुरता और क्या हो सकती है। कुछ राहत होगी यदि वाद पंजीकरण के समय ही वाद संपत्ति मूल्यांकन के आधार पर वादियों ,प्रतिवादियों का न्यायिक बीमा कर दिया जाय और एक निश्चित अवधि में फैसला न मिलने या वाद के बीच मृत्यु होने पर बीमित राशि का भुगतान उनके उत्तरधिकारिओं को कर दिया जाय ताकि उन्हें अंतहीन प्रताणना से कुछ राहत मिल सके और वे वाद को आगे लड़ सकें।
***************हमारे प्रधान मंत्री जी प्रायः उल्लेख करते हैं कि जब भी कोई आपदा या चुनौती सामने हो हमें उसे खुशहाली और बेहतरी के अवसर में बदलने का प्रयास करना चाहिए। अतः संख्या संकट के बीच यदि न्याय पालिका अपने उपभोक्ताओं के शोषण को कम करने वाले कुछ कदम उठा कदम पाए ,वाद निस्तारण की कोई समय सीमा तय कर सके या वादियों, प्रति वादियों को कोई न्यायिक बीमा योजना दे पाए तो न्याय के प्रति आस्था पुनर्स्थापित हो सके गी। यह भी सोचना होगा कि जब न्यायाधीशों की कमी दूर हो जाय गी तो यह संस्था कैसे सुनिश्चित करेगी कि शोषण की गति कम और निस्तारण की गति तेज होगी।भगीरथ प्रयास की आवश्यकता है क्योकि भारतीय लोकतंत्र  आशाभरी चक्षुओं से अहर्निश न्याय व्यवस्था की ओर देख रहा है। सबकी अपेक्षा  यही है कि न्याय के तराजू की गरिमा बढे। ------------------------------------- मंगलवीणा

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अंततः
उफ़ गर्मी। इस बार अप्रैल में ही दुसह गर्मी से सर्वत्र हाहाकार मच गया है। नदी ,बाँध ,तालाब ,कुँए सभी पानी के लिए तरस रहे हैं ,फिर आदमी ,जीव -जन्तु व पंछियों की प्यास कैसे बूझे ?समाचार पत्रों और  इलेक्ट्रानिक मिडिया के माध्यम से मौसम विज्ञानी ग्रीष्म की निष्ठुरता व उसके कारणों की नित्य जानकारी दे रहे हैं। आइए कुछ हिंदी कवियों की दृष्टि से इस ताप को देखा जाय। यथा -
जाने क्या हुआ कि सूरज इतना लाल हुआ
प्यासी हवा हाँफती फिर -फिर पानी खोज रही
सूखे कण्ठ कोकिला ,मीठी बानी खोज रही
नीम द्वार का छाया खोजे, पीपल गाछ तलाशें
नदी खोजती धार, कूल कब से बैठे हैं प्यासे
पानी पानी रटे रात -दिन, ऐसा ताल हुआ। जाने क्या हुआ ----डा.जगदीश ब्योम
ग्रीष्म की लय में बढ़ते हुए अब बदलाव की प्रतीक्षा करनी चाहिए। अश्विन गाँधी के शब्दों में -यह सब कुछ याद रहे
मौसम का साथ रहे
ग्रीष्म ऋतु भी जाएगी
फिर रहे गी प्रतीक्षा /अगले मौसम की /बहार की।
***************तब तक  हम सबका सर्वोच्च कर्तव्य है कि पानी बचाएँ और प्यासों को पानी उपलब्ध कराएँ।एक प्यासी पँछी को भी यदि हम पानी पिला पाए तो यह सृष्टि की बड़ी सेवा होगी।------------------------------------------- मंगलवीणा
वाराणसी ;दिनाँक 29 . अप्रैल 2016                 mangal-veena.blogspot.com
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रविवार, 10 अप्रैल 2016

पथभ्रष्ट शिक्षा -दुर्भाग्य देश का

****************देखते ही देखते हमारे कतिपय लब्धप्रतिष्ठित संस्थानों में शिक्षा प्राप्त कर रहे कुछ युवक  कुशिक्षित होने का प्रमाण देने लगे।कोई अफजल की शहादत मनाने लगा ,कोई महिषासुर दिवस मनाने लगा तो कोई श्रीनगर स्थित भारतीय प्रद्यौकिकी संस्थान में भारत  माता की जय बोलने वाले क्षात्रों की पिटाई करने लगा ।शिक्षा केन्दों में घट रही ये घटनाएँ सन्त कबीर की उलट बानी "बरसे कम्बल भींगे पानी " की याद दिला रही हैं।  नेताओं की तो माँगी मुरादें पूरी होने की बारी आई। कोई छात्र मरे तो क्या ,जनता के पैसों से शिक्षित हो रहे युवक राष्ट्र विरोधी बनें तो क्या ,मुट्ठी भर राष्ट्र विरोधी कश्मीरी देश को परेशान कर के रख दें तो क्या ,इन नेताओं को तो मुद्दे चाहिए जिसपर प्रलाप कर सत्ता पक्ष  के विरुद्ध भोली -भाली जनता को बहका कर अपने पक्ष में वोट बढ़ा सकें और फिर वोट से लूट और सत्ता सुख।परन्तु यह गहरी चिंता का विषय है कि ये बच्चे दुःसोच के हद तक कैसे पहुँचे।साथ ही भारतीय समाज एवँ सरकार को तत्काल सक्रिय होने का समय  है ताकि ऐसे संस्थानों, शिक्षकों , गैरशिक्षकों ,शिक्षण सामग्रियों ,विचारकों ,लेखकों ,प्रचारकों ,छद्म नायकों ,नेताओं , सफेदपोशों इत्यादि की पहचान हो सके जिसने ऐसी अपसंस्कृति एवँ राष्ट्द्रोही विद्यार्थी तैयार किये। फिर  दृढ इच्छाशक्ति से कारकों को समूल नष्ट करना होगा वरन ये लोग हमारे देश व संस्कृति को किसी गम्भीर अनहोनी में झोंक सकते हैं।विद्यार्थी तो पौध हैं,दोष तो जमीन और माली में है जिन्होंने ऐसे  कुपौधों को पनपाने की भूमिका निभाई।
***************चूँकि कारण की पूर्ण विवेचना बिना निवारण संभव नहीं है ,हमें भारत की स्वतंत्रता से अब तक नव निर्माण व प्रगति के लिए हुए सामाजिक और शैक्षिक परिवर्तनों को स्मरण करना होगा। महात्मा गाँधी की  कौशलोन्मुखी ,संस्कार स्निग्ध एवँ सर्वसुलभ शिक्षा ,जो भारत के नव निर्माण की आकांछा थी , स्वतंत्रता प्राप्ति तक आँधी की भाँति बहती रही परन्तु आजादी एवँ बँटवारे के बाद धीमी पड़ने लगी क्योंकि समकालीन अन्य शासकीय विचार धाराएँ जैसे राजशाही , प्रजातंत्र ,समाजवाद,मार्क्सवाद (कम्युनिज्म  ), व्यक्तिवाद ,धर्मसापेक्षवाद ,धर्मनिरपेक्षवाद ,उदारवाद ,कट्टरवाद ,अलगाववाद  इत्यादि  गाँधी के रामराज्य की परिकल्पना पर प्रतिघात करने लगीं।जिनके हाथ सत्ता आई वे गाँधीवादी कहलाना चाहते थे  परन्तु अपने लिए महारानी विक्टोरिया और लार्ड माउन्ट बेटन जैसी प्रभुता चाहते थे। फिर क्या था ?चतुर कांग्रेसी गाँधी के स्वयम्भू उत्तराधिकारी एवँ अपने हित केलिए देशी अंग्रेज बन गए। मैकाले की शिक्षा प्रणाली  परवान चढ़ने लगी। धीरे -धीरे व्यवस्थाविहीन व्यवस्थित भारत में  शिक्षा संस्कार विहीन होती गई।इस उदेश्य के लिए देश की अहित चाहने वाली विचारधाराओं को भी सरकारी प्रश्रय दिए गए ताकि राष्ट्रवादियों को उनके साथ उलझाया जा सके।देश के इतिहास को गौरवहीन बनाने का कुत्सित प्रयास हुआ ताकि तुलनात्मक दृष्टि से नेहरु परिवार को भारत के नव जागरण प्रतीक रूप में स्थापित किया जा सके और उनकी छाया में लाखों स्वार्थी काँग्रेसी वर्षोंवर्ष तक  इस विशाल देश का सत्ता सुःख भोगते रहें।इनकी सुविधा केलिए बनाए गए तंत्र के कारण ही इतिहास के साथ भूगोल भी बदला जिनको याद करते ही हर भारतीय का क्रोध आसमान पर चढ़ जाता है। अनुकूलता मिलती गई और विघटन केलिए लालायित  अति उग्रवादी संगठन  भी अपनी जड़ें ज़माते गए।कश्मीर एवँ पूर्वोत्तर राज्यों में विभीषिका फैलाने वाला आतँकवाद या पश्चिमी बँगाल से आँध्रप्रदेश तक फैला नक्सलवाद आँख मूंदने से ही आज ऐसे भष्मासुरी पैमाने पर पहुँचा है कि शिक्षण संस्थानों में भी इनके समर्थक अध्ययन -अद्ध्यापन कर रहे हैं और उनके हित को आगे बढ़ा रहे हैं।
***************शिक्षा को पथ भ्रष्ट होने का सबसे बड़ा कारण बना पैसा। पूरे विश्व में औद्योगीकरण के बाद संस्कृति, सदाचार ,संस्कार इत्यादि पर पैसा हावी होने लगा।सुख ,सुविधा ,शिक्षा ,सम्मान ,सत्ता ,यहाँ तक की धर्म भी पैसे के अनुचर बन गए। पैसा , सदाचार से अर्जित हो या कदाचार से , केवल पैसा माना जाने लगा और यह पैसा सर्वोपरि पैसा बन गया।जब भ्रष्ट कार्यों से पैसा बहुत कम समय में बहुत ज्यादा अर्जित होने लगा तो भ्रष्ट होने में लोगों की झिझक जाती  रही। गाँधी  काल की आम जन की वह पीढ़ी जो संस्कारों में जीती थी अगली पीढ़ी  को भी भरसक संस्कारित बनाए रखी  परन्तु तीसरी नई पीढ़ी  के सामने अनुत्तरित हो गई। युवक जब अभिभावकों के समक्ष आज के नायकों जैसे नेता ,माफिया ,अभिनेता ,सरकारी बाबू ,अभियन्ता ,वकील ,ठेकेदार ,शिक्षक इत्यादि का उदहारण रख देते हैं तो देश प्रेम  ,सदाचार एवँ संस्कार की बातें अप्रासंगिक लगने लगती हैं। धनोपार्जन की अनुगामी बन चुकी शिक्षण संस्थाएं भी इस नवाचार से अछूती नहीं रहीं ।  चाहे सत्ता पक्ष में रहें या विपक्ष में ,चाहे देश प्रेम की राजनीति करें या देश द्रोह की ;  नेता बनना तो धनोपार्जन का इतना सटीक ब्रह्मास्त्र बन गया है कि इससे अल्पकाल में सर्वाधिक संपत्ति और सम्मान की गारन्टी हो गई है।जवाहर लाल नेहरु  या जाधव पुर विश्वविद्यालय में कन्हैया जैसे छात्रनेताओं के प्रादुर्भाव की  यही तो प्रमुख पृष्ठभूमि है।
***************पिछले सात दशकों में हमारे देश में सामाजिक समरसता एवँ पुनर्निर्माण के लिए जो मील के पत्थर  सरीखे कार्य हुए वे भी पार्श्व प्रभाव के रूप में शिक्षा को संस्कार विहीन किये। रियासतों के विलय ,जमींदारी उन्मूलन ,अधिवासी कानून ,अथवा भूदान यज्ञ से जहाँ लोकतंत्र  की अच्छाइयाँ सामने आईं वहीं लाभान्वित वर्ग को लगा कि मनुवादी संस्कृति के बूते सदियों तक उन्हें उनके अधिकार से वंचित रखा गया। हद तो तब हुई जब  सामाजिक समरसता के नाम  पर जाति विशेषके लोगों को हर क्षेत्र में सरकारी आरक्षण दिया गया और आरक्षण पाने वाली जातियों की सूची उत्तरोत्तर बड़ी होती गई। भारतीय संस्कृति तथा इसके ताने बाने को आरक्षण ने इतनी छति पहुंचाई कि सामाजिक समरसता चूर -चूर होने लगी। मेधाओं के अवसर छीने और अयोग्य हाथों में जिम्मेदारियाँ आईं।सुअवसर कौन छोड़ता है ;अब जाट ,गूजर ,पटेल ,ब्राह्मण ,ठाकुर सभी  आरक्षण माँग रहे हैं और शिक्षण संस्थायें इन सारी विषमताओं के दर्पण बनते जा रहे हैं।उसी दर्पण में दुर्गा के आराधकों के सामने महिषासुर को महिमा मण्डित करने वाले भी दिखने लगे हैं।अतीत के गलत निर्णयों व् गन्दी नेतागिरी ने सामाजिक विषमता को चरम पर  पहुँचा दिया है जहाँ से इसे सही स्थान पर न लाने से देश को भयावह परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं।
***************विश्वपटल पर आर्थिक शक्ति के रूप में उभरते भारत को ऐसे गतिरोधकों से तत्काल छुटकारा  पाने का समय आ गया है। समय की पुकार से प्रेरित जनता ने एक देश प्रेमी सरकार को बहुमत के साथ सत्ता सौंपी है। अपना दायित्व निभाते हुए जनता सरकार को याद दिला रही है कि ढुलमुल रवैया एवँ तुष्टिकरण से शासन को स्वतन्त्र किया जाय। संविधान देश के लिए है न कि देश संविधान के लिए। यदि अस्पष्टता के बहाने कोई गैरभारतीय सा व्यवहार करता है तो बोलने की स्वतंत्रता की तत्काल लिखित व्याख्या होनी चाहिए। देशप्रेम अभिव्यक्ति के जितने भी ढँग हों ,उनको संवैधानिक रूप से इस निर्देश के साथ सम्मान मिलना चाहिए कि जिस भी अभिव्यक्ति से भारत का जयकारा हो ,सभी वर्ग व धर्म के लोग समवेत स्वर से उसमें सहभागी बनें।भारत में रह कर पाकिस्तान जिंदाबाद कहने वालों को न पाकिस्तान मिले न विशेष दर्जा परन्तु उनके लिए सख्त  क़ानूनी परिणाम अवश्य सुनिश्चित हो ।यदि वर्तमान के साथ इतिहास  ठीक कर लिया जाय और संस्कार को समाज में पुनर्स्थापित कर दिया जाय तो कल हमारा है।देश को इन चुनौतियों पर विजय पाना ही होगा क्योंकि पूरी दुनियाँ की आशा भरी दृष्टि भारत पर है। ------मंगलवीणा
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वाराणसी ;दिनाँक 10 . 04 . 2016
------------चैत्र शुक्ल ३ सम्वत २०७३                           mangal-veena .bloger.com
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अंततः
चैत्र माह की नवरात्रि व् श्री रामनवमी के पावन पर्व पर यह स्मरण करना प्रासंगिक
होगा  कि गाँधीकल्पित रामराज्य के अतुल्य नायक मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम अपनी जन्मभूमि  को कैसी श्रद्धा अर्पित करते थे।''लंका विजयोपरांत वनवास की अवधि पूर्ण होते ही प्रभु श्रीराम अपनी अर्धांगिनी जानकी ,भ्राता लक्ष्मण ,लंकापति विभीषण ,वानर राज सुग्रीव तथा अंगद आदि के साथ पुष्पक विमान से अयोध्या वापस आ रहे थे। ज्यों ही विमान अयोध्या के आकाश पर पहुँचा ,मातृभूमि के दर्शन पाते ही प्रभु विह्वल हो उठे और सहयात्रिओं से बोल उठे कि -
*****जद्यपि सब बैकुंठ बखाना। बेद पुरान बिदित जगु जाना।।
*****अवधपुरी सम प्रिय नहिं सोऊ। यह प्रसंग जानइ कोउ कोऊ।।
*****जन्मभूमि मम पुरी सुहावनि। उत्तरदिसि बह सरजू पावनि।।
*****अति प्रिय मोहि इहाँ के बासी। मम धामदा पुरी सुख रासी।।श्रीरामचरितमानस।'
अस्तु ,बैकुण्ठ से भी अधिक प्रिय भारत के देशप्रेमियों को नवरात्रि एवँ श्री रामनवमी की
शुभ कामनाएँ।-------------------------------------------------------- मंगलवीणा