शुक्रवार, 18 सितंबर 2015

हिंदी के साथ पखवारे का छल

 ***************हमारे देश में चौदह सितंबर से हिंदी के लिए एक पखवारे की उत्सव बेला आती है। लोग एकाएक हिंदी को विश्व की सर्वाधिक समर्थ भाषा बताने लगते हैं और हिंदी का गुणगान कर तद्गत लाभ साधने लगते हैं।पूरे देश के कार्यालयों,विभागों व् अनेकानेक संस्थानों के अँग्रेजियत से ओतप्रोत प्रमुख, हिंदी महिमा महोत्सव के लिए, मंचों पर सजने लगते हैं। तीन सौ पैंसठ दिन हिंदी की अनवरत सेवा करनेवालों को तो इस भुलावे से कोई अंतर नहीं पड़ता परन्तु प्रति वर्ष  चौदह सितम्बर से एक पखवारा तक हिंदी के नाम उत्सव मनाने वालों के उत्साह का पारावार नहीं होता। यह उत्सव भारत में सरकार द्वारा आयोजित अनेक उत्सवों में एक है।  इस पर्व को पन्द्रह दिनों तक मनाने के लिए सरकार प्रचुर धनराशि खर्च करती है।अतः पैसे की स्वीकृति पूर्व में ही करा ली जाती है। फिर क्या हर कार्यालय के प्रमुख ,हिंदी अधिकारी व कर्मचारी नेमी कार्यों से विरत हो नित एक नया कार्यक्रम आयोजित करते हैं और स्मृतिचिन्ह ,पुरस्कार व जलपान में पैसे समायोजित करते हुए हिंदी को भरपूर उपकृत करते हैं।
***************इस पखवारे में ऐसे निठल्ले कहे जाने वाले कर्मचारियों की ,जिन्हें केवल हिंदी लिखना ,बोलना आता है, उनकी वैसे ही पूछ बढ़ जाती है जैसे शरद ऋतु में खञ्जन पक्ष की। गैर हिंदी भाषी  कर्मचारी जिन्हे थोड़ी बहुत हिंदी आती है, वे तो इस पखवारे में साइबेरिया से आये प्रवासी पक्षियों की भाँति गोष्ठियों में दर्शनीय व शोभनीय हो जाते हैं।जहाँ चाह है वहाँ राह है। दो चार लोग वाद -विवाद ,टिप्पण , टंकन,लेखन ,आलेखन इत्यादि में भाग लेने केलिए जुटा लिए जाते हैं। निर्णायक की भूमिका के लिए हिंदी के लाभार्थी तथा व्याख्यान के लिए धनार्थी हर कार्यालय को बड़ी सुगमता से मिल जाते हैं। चूँकि पखवारे का आयोजन पैसे से जुड़ा है अतः प्रिंट एवँ इलेक्ट्रानिक माध्यमों की भी सहभागिता हो जाती है। बड़े ही आनन्दमय वातावरण में"अगले बरस फिर अइयो साथ में ज्यादा बजट ले अइयो' की कामना के साथ विभागाध्यक्षों द्वारा पखवारे का समापन कर दिया जाता है। फिर वही यक्ष प्रश्न कि हिंदी भारत की राष्ट्र भाषा क्यों नहीं और पखवारे का छल क्यों। 
***************स्वाधीन भारत में हिंदी के प्रगामी प्रयोग को बढ़ाने एवँ,इसके प्रचार प्रसार हेतु दशकों से हर वर्ष यह सरकारी पर्व मनाया जा रहा है परन्तु हिंदी देश की राजनीतिक देहरी पर, अपने हक़ के लिए, सात दशकों से अनवरत खड़ी है।हमारे नेता इसे राष्ट्र संघ की भाषा बनाने की बात करते हैं परन्तु राष्ट्र भाषा बनाने की चर्चा से कन्नी काट जाते हैं। प्रारंभिक दिनों में बाबुओं द्वारा सरकार के ज्ञाप ,परिपत्र  या पत्र अंग्रेजी में जारी हो जाते थे और नीचे लिख दिया जाता था -हिंदी वर्जन फालोज। आश्चर्य है आज भी वैसा ही हो रहा है। इस प्रक्रिया को हिंदी की नियमित मासिक प्रगति रिपोर्ट बनानेवाले बाबू इतने वर्षों में उलट तक नहीं सके कि कोई अभिलेख हिंदी में पहले जारी हो और उस पर लिखा हो कि अंग्रेजी पाठान्तर अनुगमित।हमारे लोकतंत्र में विश्वसनीयता  के पैमाने पर सर्वोच्च न्यायालय शीर्ष पर है परन्तु आज तक उसे भी चिन्ता नहीं हुई कि वह जो फैसले अंग्रेजी में देती है उसका सीधा सम्वन्ध जनता से है जिसकी मातृ भाषा हिंदी है या हिंदी की सहोदरी भाषाएँ। ऐसे में फैसले भी वकील या उन जैसे दुभाषिये पढ़ कर याची या प्रति याची  को बताते हैं।ये न्याय देने वाले भारतीयता का कौन सा आदर्श उच्च या निचले न्यायालयों के समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं। जन की हित सोचने वाले जनहित का मरम जानने में विफल हैं।अब वे तर्क बेमानी लगते हैं कि हिंदी में तकनीकी शब्दावली क़ी कमी है या विज्ञानं,अभियांत्रिकी ,अंतरिक्ष ,कानून जैसे विषय हिंदी में ब्यक्त नहीं हो पाते। भाषाओँ की दूरियाँ मिट रही हैं। अंग्रेजी का ऑक्सफ़ोर्ड शब्दकोष प्रति संस्करण अनेकों हिंदी के शब्द आत्मसात कर रहा है। वैसे ही हिंदी में अन्य भाषाओँ के अनेकानेक शब्द घुल मिल रहे हैं।जिन शब्दों के अन्य भाषाओँ में समानार्थी नहीं होते वे शब्द हर भाषा के लिए सर्वमान्य रूप में लिए जाते हैं। जब महात्मा गाँधी  हिंदुस्तानी भाषा पर बल देते थे,उनके राष्ट्र भाषा पर यही विचार थे। अतः इस बहकाने वाले कुतर्क से हट कर उस मन्तब्य को सामने लाना चाहिए जो हिंदी से भेद भाव का मूल कारण है।
***************इस भेद भाव की नींव भारत की पराधीनता के दिनों में पड़ी जब अंग्रेज शासन करते थे। उनकी अपनी शासन शैली थी जिसमें वे अपनी अँग्रेजी भाषा ,अपनी सभ्यता ,अपनी जाति एवँ अपनी शिक्षा को पूरी दुनियाँ में सर्व श्रेष्ठ मानते थे।वे लोग लम्बे शासन काल में देशी साधन संपन्न लोगों को अपने साँचे में ढाल कर कर देशी अंग्रेज बनाते गए। स्वतंत्रता मिलने तक इस देश में अंग्रेजी शिक्षा पद्धति की जड़ें बहुत सुद्दृढ की जा चुकी थीं और देशी अंग्रेज़ या इंडियन, अंग्रेजियत के साथ, सत्ता सँभालने के लिए तैयार हो चुके थे। फिर क्या था ये देशी इंडियन सत्ता सँभाल लिए और देशी भाषाओँ को भारतीयों की भाषा तक सीमित कर आज तक भारत पर नियंत्रण किये हुए हैं।ये इंडियन ही भारती एवँ भारतीयता के अहित साधक है जो हिन्दी पखवारा का आयोजन कर करा कर हिन्दी भाषियों को तुष्ट करने का उपक्रम करते हैं।परन्तु साठ करोड़ से भी अधिक देशी हिंदी भाषी एवँ दुनियाँ में फैले भारतीय मूल के लोग अपनी भाषा के साथ हो रहे दुर्भाव को सहन करते हुए आज भी उसकी सेवा तथा प्रचार -प्रसार में अनवरत लगे हुए हैं।ये असंख्य हिंदीभाषी अपनी इस मातृ भाषा को विश्व की सम्पन्नतम व सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओँ में पहचान दिला चुके हैं और उसे वह हर प्रतिष्ठा भी दिलायें गे जो साहित्य ,कला ,लालित्य से ओतप्रोत एक जीवंत लोकप्रिय भाषा को मिलनी चाहिए।हिंदी का गंतब्य राजभाषा ,संपर्कभाषा से आगे राष्ट्र भाषा के रास्ते विश्व भाषा बन कर अन्तरिक्ष के अनंत रहस्यों तक है।
***************हिंदी पखवारा जैसे आयोजनों के औचित्य पर भी हिंदी साधकों के दो परस्पर विरोधी धड़े हैं।एक निःस्वार्थ साधकों का वर्ग है जो पूर्व ऐतिहासिक काल से अर्थात संस्कृत वांग्मय से उद्गमित होने से अब तक इस भारती की सेवा में तल्लीन है। दूसरे वर्ग में  हिन्दी के लाभार्थी साधक हैं जिनकी परम्परा बीर गाथा काल के चारण अथवा भाटों से आरम्भ हो भक्ति एवँ रीति काल के दरबारी साहित्यकारों से होते हुए आधुनिक काल के सरकारी सजावटी साहित्यकारों तक है।निःसंदेह दोनों वर्ग के साधक आज की आधुनिक हिन्दी के लिए सराहनीय कार्य कर रहे हैं परन्तु हिंदी को श्रेष्ठता की धार देने वाले निःस्वार्थ साधक रहे हैं जिन्होनें हिंदी की सेवा स्वान्तःसुखाय की है या कर रहे हैं। यह वही परम्परा है जिसका उद्घोष गोस्वामी तुलसी ने यह लिख कर किया कि भाषाबद्ध करब हम सोई ,मोरे मन भरोस जेहि होई।कारण बताया कि कीरति ,भनति ,भूति भल सोई,सुरसरि सम सबकर हित होई।अतः हिंदी के निःस्वार्थ सेवक,हिन्दी के कामिल बुल्के सरीखे विदेशी विद्वान व विदेशी शैक्षिक संस्थान सभी भूरि -भूरि प्रशस्ति के पात्र हैं।
***************इन वर्गद्वय के आलावा हिन्दी को बुलन्दियों पर पहुँचाने वालों में हिन्दी के चलचित्रों,हिंदी टीवी के समाचार व मनोरंजन के कार्यक्रमों ,हिन्दी के समाचार पत्रों तथा विदेशों में बसे प्रवासी भारतीयों का भी प्रथम पंक्ति में गणनीय योगदान रहा है। हिंदी में जीने वाले राजनेताओं ने भी कभी -कभी विश्व मंच से हिन्दी के लिए भारत देश को गौरवान्वित किया है। हिंदी फ़िल्मी गानों ,चलचित्रों ,भारतीय संगीत ,योग ,जय हो ,नमस्ते या सबका साथ सबका विकास का तो कहना क्या?ये पूरी दुनियाँ में हिन्दी की दुंदुभी बजा रहे हैं।देश के शिक्षा संस्थानों के लिए भी, संकोच  से  बाहर  होकर, नेतृत्व  करते  हुए  हिंदी  के प्रति  अपने दायित्व निर्वहन का यह स्वर्णिम समय है। मंच कोई भी हो, पखवारा हो या न हो , यदि हम भारतीय हिन्दी भाषी होने पर अहर्निश गर्व करने और आत्मविश्वास से हिन्दीमय ब्यवहार करने लगें तो सबसे आगे हिंदुस्तानी (हिंदी )दिखे गी।----------------------------------- -------------------------------- मंगलवीणा
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वाराणसी ;दिनाँक 18 . 09. 2015 -------------------mangal-veena.blogspot.com
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सोमवार, 7 सितंबर 2015

पावसनामा

***************रीतिकालीन "बरसा ऋतु सुखदानि जग ,तुम सम कोऊ नहीं" के विपरीत विदाई की ओर अग्रसर बरसात ने जनता की उलझने और उलझाई।ग्रीष्म के महीनों में मौसम विज्ञानियों ने यह कह कर कृषकों की उलझन बढ़ा दी कि इस वर्ष बरसात औसत से कम होगी। अर्थ व्यवस्था पर इसके कुप्रभाव एवं सरकार की तैयारियों पर चर्चा भी चल पड़ी। परन्तु जब वर्षा होने लगी तो ऎसी हुई कि तीन चौथाई देश जलमग्न हो  गया। बादल ऐसे फटे कि गाँव के गाँव अस्तित्व खो बैठे।समाचारों के अनुसार बाढ़ और बरसात से पूर्व की भाँति काफी जन धन की हानि हुई है जब कि कथनी के अनुसार सरकारें भी अति सक्रिय रहीं।पता नहीं ये मिथ्या पूर्वानुमान लगाने वाले सूखे का लाभ उठाने वालों को सही समय का संकेत दे रहे थे या देश के एक युवा नेता की तरह अपनी विशेषज्ञता की ढफली बजा रहे थे।इस पावस ने यह भी देखा कि गुण्डे ,लुटेरे ,हैवान खुलेआम आम आदमी एवँ उनकी बहन ,बेटियों की मर्यादा तार -तार करते रहे और चोर लुटेरे जनता की गाढ़ी कमाई पर हाथ साफ करने का रिकार्ड बनाते रहे। राज्य सरकारें जिनके हाथ कानून व्यवस्था है वे सुरक्षा सुनिश्चित करने से ज्यादा यह प्रचारित करने में लगे रहे कि अन्य राज्यों की तुलना में उनके यहाँ कम अपराध है।घटना घटने के बाद अपनी रीति के अनुसार हमेशा देर से पहुँचने वाली पुलिस और प्रशासन के लोग खानापूर्ति करते हुए जनता की जले पर नमक छिड़कते रहे। थोड़े और समय बाद जब विभिन्न दलों के नेता  पहुँच कर अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने के लिए घड़ियाली आँसू बहाना नहीं भूले तो शासन और सरकार से जनता को अत्याधिक घृणा हुई।  भुक्तभोगियों की हर प्रतिक्रिया नक्कारखाने में तूती सिद्ध होती रही है।लोकतंत्र से जनता अपने हक़ और सरकार के कर्तव्यों की अपेक्षा करती है पर सरकारें उन्हें अपनी कुटिल कृपावृष्टि से उपकृत कर रही हैं।ये परस्पर विरोधी स्थितियाँ हैं जो देश को बहुत हानि पहुँचा रही हैं।नई केंद्र सरकार द्वारा इस ऋतु में भी कुछ ऐसा होते नहीं दिखा कि इंडिया भारत बनने या भारत इंडिया बनने की ओर अग्रसर हों।ऐसे में पूर्व की भाँति जनता को न्याय पालिका एवँ मिडिया का वही सहारा रहा जो डूबते को तिनके से मिलता है परंतु कर्तव्य एवँ सुविधा के बीच स्वयं इनकी उलझन चिन्ता की लकीरें खींच रही हैं।
***************दूसरी ओर वर्षा ऋतु में हमारे देश की सड़कें ,रेल व बिजली व्यवस्था भी पानी -पानी हो गईं और लोगों की जान से जी भर के खेलीं ।जिन्हे लोगों के जान माल की चिंता होनी चाहिए वे सोचते हैं कि यह तो सामान्य बात है क्योंकि व्यवस्था  जनता के लिए है तो जनता ही भुगते गी भी।परन्तु आम आदमी क्या चाहता है ,यह कोई इतनी गूढ़ पहेली नहीं है। जहाँ जनता को चाहिए सुरक्षित ससमय रेलयात्रा वहाँ बार -बार हो रही रेल दुर्घटनाएँ उन्हें मौत का भय दे रही हैं और सरकार तीब्र द्रुतगामी रेल के सपने दिखा रही है। जहाँ उन्हें चाहिए टिकाऊ ,समतल, पक्की सड़कें वहाँ उन्हें दी जा रही है - अल्पावधि में गिट्टियाँ उधड़ी ऊबड़ -खाबड़ जानलेवा सड़कें जिन पर प्रतिवर्ष लाखों लोग दुर्घटनाग्रस्त हो रहे हैं।सरकार को तो दिखता ही नहीं कि बरसात में कुछ सडकों ने ताल -तलैया का रूप ले लिया और आस -पास बिखरी गिट्टियाँ उन पर चलने वालों के हाथ -पैर तोड़ रही हैं। आम लोग हैरान -परेशान हैं कि ये सड़कें क्यों बनाई जाती हैं। यदि सरकार के पास कोई दक्ष ,ईमानदार और सक्षम व्यवस्था नहीं है तो पहाड़ों को तोड़ कर पर्यावरण को हानि पहुँचाने ,पत्थर की गिट्टियों को समतल भूमि पर छींटने या यही क्रम बार -बार दुहराने और जनता के पैसे बर्बाद करने का सरकार को कोई हक़ नहीं है। लोग अपने को सत्ताधारी ,सरकारी एवँ गैरसरकारी लुटेरों के हाथ लुटते पा रहे हैं और अपनी नियति को कोस रहे हैं।कुछ साल पहले तक कच्ची सड़कें थीं या कम रेल सेवाएँ थीं तो क्या आज जैसी जानमारू तो नहीं थी।नई सड़कें बनती जा रही हैं। केंद्र और राज्य सरकारें लाखों किलोमीटर सड़क व पुलों के निर्माण होड़ में लगी हैं परन्तु पुरानी सडकों की दयनीयता को कोई देखने वाला नहीं। बिजली की आँख मिचौनी ने जीना दूभर कर रखा है ऊपर से पुराने जर्जर तार बरसात में सडकों एवँ गलिओं में टूट कर गिर रहे हैं और लोगों के जान ले रहे हैं। इसकी चिंता छोड़ नए तार बिछाए जा रहे हैं।जनता क्यों न सोचे कि विशेष अभिरुचि के कारण भी विशेष होते हैं।
**************इस पावस में बच्चों की शिक्षा एवँ सरकारी स्कूलों की दुर्दशा  ने आम लोगों को खूब झकझोरा ;यहाँ तक कि माननीय उच्च न्यायालय इलाहबाद को सख्त निर्णय सुनाना पड़ा कि नेता एवँ अधिकारियों के बच्चे अनिवार्यतः सरकारी स्कूलों में पढ़ाये जाँय तभी सरकारी विद्यालयों की दशा सुधरे गी। जरा उस मनोदशा को सोचें जब कृषक या श्रमिक खेतों में जूझ कर घर आते हैं और बैठक में सुस्ताते जब घर का कोई सदस्य कहता है कि रीता और रितेश को फिर सरकारी प्राइमरी स्कूल में ही भेजना होगा, क्योंकि बाजार में चल रहे अंग्रेजी माध्यम वाले प्राइवेट स्कूल बहुत ज्यादा दाखिला फ़ीस माँग रहे हैं। घर का बूढ़ा मुखिया धुँधली नज़रों से आसमान की ओर देखता है। न उसे तारे दिखते हैं न ही सुनहरी चाँदनी। मानो देसी सरकार रूपी बादलों ने उनके भविष्य को अंधकार से ढँक लिया हो।फिर थका हारा  चिंतित परिवार अपनी भावी पीढ़ी के भविष्य पर इस चर्चा में लग जाता है कि देश में दो प्रकार के स्कूल क्यों। ये नेता कौन सी आजादी की बात करते हैं ? यदि सरकारी स्कूल ही ठीक से चलाते तो हम प्राइवेट अंग्रेजी स्कूल में बच्चे पढ़ाने को क्यों तरसते। वाह रे, स्वराज के अरसठ साल बाद वाले सरकारी स्कूल --जर्जर भवन ,इक्के -दुक्के मास्टर ,न कापी न किताब।शिक्षा का कोई माहौल नहीं परन्तु मध्यान्ह भोजन की चिंता अवश्य हो रही है। ये सरकारी स्कूल क्या हैं - साक्षात शिशु शरणार्थी गृह। अंततः मुखिया निर्णय लेता है कि उसका बेटा अपने बच्चों व पत्नी के साथ शहर जाय। वहीँ अपनी रोजी तलाशे और किसी अच्छे स्कूल में बच्चों की शिक्षा सुनिश्चित करे।बूढ़ों के बुढ़ापे की चिंता छोड़ लोग बच्चों की पढाई हेतु शहर की ओर भाग रहे हैं।उस विकास को क्या कहा जाय जहाँ अच्छी शिक्षा अमीरों के लिए आरक्षित हो गई, नौकरियाँ सामाजिक पिछङों को आरक्षित हो गईं और गरीबों को परवश हो कराहने व वोट देने के लिए छोड़ दिया गया।उस बरसात को भी क्या कहा जाय जिसमें लोगों को घर छोड़ शहर की राह पकड़नी पड़े जबकि हमारी परंपरा चतुर्मासा में प्रवास पर जाना वर्जित करती है। शिक्षक दिवस को राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी ने मुखर्जी सर बन कर विद्यार्थियों को पढ़ाया ;वहीँ प्रधान मंत्री जी ने सीधे विद्यार्थियों से संवाद किया।यह शिक्षा सुधार की दिशा में एक नव युगारम्भकारी पहल हो सकता है परन्तु तभी जब अंतिम पंक्ति में बैठे साधनहीन विद्यर्थियों को पब्लिक स्कूलों की सुविधा देते हुए उनकी कक्षा में ऐसे दिवस मनाये जाँय गे।भारत और इंडिया अलग -अलग शब्द  होना छोड़ एक शब्दार्थ बनाने का प्रयास करते भी नहीं दीख रहे हैं।    
*************** बीते पावस से जनताको सुखद आस थी कि सरकार जीएसटी विधेयक पारित कर देगी  जिससे उपयोग की जिंस सस्ते दामों पर मिलने लगेंगी। कर के नाम पर ठगहारी व लूट बन्द हो जाय गी। परन्तु ऐसा हो न सका। जो सत्ता खो कर विपक्ष में बैठे हैं ,ऐसा भष्मासुरी नाच संसद और संसद के बाहर नाचे कि जनता ठगी कि ठगी रह गई।जनता के कई सौ करोड़ रुपये इनके इस नौटंकी आयोजन पर खर्च हो गए।ऊपर से इन शर्मविहीन सांसदों ने लोकलाज को किनारे रख अपने बेतन ,भत्ता व छूट वाले भोजन का पावस में खूब आनंद उठाया। आजकल अपने -अपने क्षेत्र में जनता के सामने अपनी पीठ थपथपा रहे हैं कि कैसे उन्होंने सरकार को घुटने टेका दिया। हो सकता है आगामी किसी सत्र में ये सभी पक्ष विपक्ष के नेता ,जीएसटी या कोई अन्य विधेयक पारित करते हुए, एक मत से अपना बेतन ,भत्ता दुगुना या तिगुना करा लें व अपनी विशेष दर्जा व सुविधा की और बड़ी सूची जनता को पकड़ा दें।सातवें बेतन आयोग की सिफारिशें आनेवाली हैं तो बाबू से पीछे सांसद ,विधायक क्यों।जागीर उनकी है ,जो कुछ  उनके उपभोग से बच जाय वह कमीशनखोरी के बाद देश एवँ देश के विकास के लिए ही तो है।                    
***************पावस बीतने वाला है पर उलझन सुलझे ना। स्वतंत्रता पाने के अति उत्साह में तत्कालीन नेताओं ने देश के लिए आरक्षण ,जम्मू -कश्मीर ,देश विभाजन ,राष्ट्रभाषा  जैसे राजरोग पैदा कर दिए जो देश की प्रगति को घुन की नाईं चाट रहे हैं।जहाँ जनता की अपनी असह्य उलझनें हैं वहाँ ये पैदा की हुई राष्ट्रीय अनुवाँशिक समस्याएँ, जैसे आरक्षण के लिए चल रहे आन्दोलन ,पश्चिमी सीमा पर आए दिन आम नागरिक एवँ सुरक्षा बल के जवानों का मारा जाना,  उन्हें और उलझन में डाल रही हैं।क्या प्याज की बात हो ,क्या दाल के दर्द पर रोया जाय ;जब सरकार सीमा पर पाकिस्तान को जवाब देने ,जम्मू -कश्मीर में आतंकियों को नष्ट करने और देश के विभिन्न भागों में आरक्षण के लिए चल रहे आंदोलनों को निबटने में ही अहर्निश उलझी हुई है।काश !ये समस्याएँ न होती,हम मन ,वाणी और कर्म से ईमानदार होते और देश तथा सरकार की ऊर्जा जन कल्याण कार्यों व विकास में लगी होतीं तो उलझन का नाम- ओ- निशान ही कहाँ होता। यदि लोकतंत्र में समान अवसर का सपना सचमुच में साकार हो पाता तो भारत द्वारा  मंगल पर मंगल यान भेजना या शक्तिशाली क्रायोजनिक इंजनों से उपग्रहों  का लगातार सफल प्रक्षेपण करना विश्व को कुछ अलग सन्देश दिया होता।फिर भी जनता आशान्वित है कि शरद ऋतु पावस से बेहतर होगी।जिन भारतीयों ने बीते मौसम में अपनीं  दाल विहीन थाली से एकाएक प्याज को महँगाई के साथ उड़न छू होते पाया है,उनके दिन जल्द बहुरें गे। सस्ती प्याज थाली में लौट कर फिर उनके आँसू निकाले गी और आँसू पोछे गी।____मंगलवीणा 
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वाराणसी ;दिनाँक :08 सितम्बर 2015                         mangal-veena.blogspot.com
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