गुरुवार, 14 मार्च 2013

आधुनिकायें और मासूमों केसाथ बीभत्स यौनाचार

                             हम प्रगतिशील भारतवासी अपनेलिए स्वयं अस्वस्थ समाज का निर्माण कर उससे उत्पन्न अनेक भ्रष्टाचरणों से जूझ रहे हैं । पूरा देश चाहता है कि इन भ्रष्ट आचरणों पर रोक लगे फिर भी उन्हें बढ़ाने वाले साजो -सामान रात -दिन तैयार हो रहे हैं । यह ऐसी कोई गूढ़ बात नहीं है -जो लोगों के समझ में नहीं आ रही है । गाँधीजी के तीन आधुनिक बन्दर सार्थक हो रहे हैं । देखते हुए लोग कह रहे हैं कि ऐसा कुछ दिखाई नहीं देता । सुनते हुए कह रहे हैं कि ऐसा कुछ सुनाई नहीं देता और बोल कर भी कह देते हैं कि ऐसा कुछ कहा नहीं । आधुनिकाओं पर चर्चा भी कुछ इसी तरह चल रही है । चूँकि यौनाचार में महिला एवं पुरुष एक दूसरे से जुड़े (संपृक्त )हैं अतः इससे जुड़े दुराचरण केलिए तथाकथित आधुनिक महिलाएं भी जिम्मेदार हैं परन्तु मात्र वे ही जिम्मेदार नहीं हैं ।अधुनिकता के नाम पर मर्यादा की सीमा तोड़ने वाली महिलाएं यौन -अपराध केलिए कारणरूप में जिम्मेदार हैं परन्तु सम्पूर्ण आधुनिक महिला समाज बिल्कुल नहीं । मानव विकास के हर काल में तत्कालीन आधुनिकता ने उन्हें सभ्य से सभ्यतर बनाया परन्तु आज की आधुनिकता हमें असभ्यता की ओर लिए जा रही है । यह दुर्भाग्य की बात है और इसी में एक है मासूमों केसाथ हो रहा यौन -अपराध ।
                            बीते दिनों राजधानी दिल्ली एवं देश के अन्य भागों में मासूम बच्चिओं के साथ जो यौन अपराध हुए -उससे केवल मानवता ही शर्मशार नहीं हुई ,कुछ गंभीर मुद्दे भी सोच को विवश किये हैं जैसे क्या इन अधम अपराधियों केलिए प्रथम पसंद लक्ष्य (टारगेट )ये बच्चियां ही थीं ?क्या उन्हें देशतंत्र एवं कानून ब्यवस्था का खौफ नहीं था ?और क्या उनपर लोक -लाज और इन बच्चिओं से उम्र के सापेक्ष बनने वाले संबंधों (चाचा ,पापा ,ताऊ ,दादा ,नाना )का अहसास नहीं था ?इन प्रश्नों के उत्तर मनोविज्ञान में चाहे जिधर झुकते हों पर इतना तो तय है ऐसे अपराधी सनक के उस बिंदु पर अवश्य पहुंचे होंगे जहाँ से अपने को नियंत्रित करने एवं अपराध न करने की कोई संभावना उनमें नहीं बची  होगी । फिर यह भी तय है कि ऐसी सनक के उत्प्रेरकों में उनकी स्वयं की अशिष्टता एवं असंयम केसाथ उन्हें ऐसा बनाने वाले संदर्भित कारण भी हैं। 
                            उत्प्रेरकों की चर्चा में यदि खरी -खरी कहें तो आज यौनाचार से जुड़े अपराध केलिए युवा वर्ग का उन्मुक्त ब्यवहार जिम्मेदार हो रहा है।यह वर्ग अपनी स्वेच्छाचारिता को लोकाचार की तुलना में अधिक महत्व देता है और अपनी स्वतंत्रता एवं स्वछंदता के सामने दूसरों की स्वतंत्रता एवं स्वछंदता का तनिक भी ख्याल नहीं रखता है। अपने को आधुनिक दिखाने एवं कहलाने की ललक में यह वर्ग सामाजिक शिष्टता का हाथ मरोड़ कर यौन अपराध एवं हिंसा का जाने -अनजाने प्रेरक बन रहा है । दूसरा बड़ा कारण है-आज के परिवेश में हर क्रिया-कलाप का यौनाचार पर फोकस (केन्द्रित )होना । बड़े परदे से छोटे परदे तक ,समाचार से विज्ञापन तक ,भक्ति प्रसारणों से पारिवारिक धारावाहिकों तक ,साहित्य से संगीत तक ,संवाद से इशारे तक ,शारीरिक भाव -भंगिमा से पहनावे तक सारी गतिवधियां दर्शकों एवं श्रोताओं को सेक्स का ध्यान कराती रहती हैं। आगे सभी जानते हैं कि हम जिस विषय को अधिक सुनेंगे ,चिंतन -मनन करेंगे और अपने आसपास  देखेंगे ;उससे प्रभावित होंगे । बात बचती है केवल नीर-क्षीर विवेक की ,जो सबको संस्कार के अनुसार कम या ज्यादा मिलती है । वे दुर्भाग्यशाली हैं जिन्हें पर्याप्त संस्कार या शिष्टाचार नहीं मिला और कुंठावश बच्चिओं केसाथ घृणित अपराध कर बैठते हैं। वस्तुतः वे कुकृत्य तो किसी और केसाथ करना चाहते हैं पर वांछित लक्ष्य न मिलने पर मासूमों को शिकार बना लेते हैं । वैसे भी यौनाचार एक जैविक आवश्यकता है जो पूरी न होने पर अशिष्ट एवं असंयमी पुरुष या नारी को विकल्पित अपराध की ओर ले जाती है ।
                          अंतिम और उतना ही बड़ा कारण देश की फेल हो चुकी कानून एवं पुलिस ब्यवस्था है । आज इनमें न अपराध रोकने की दक्षता है न अपराध हो जाने पर अपराधी को तुरत -फुरत सजा दिलाने की क्षमता । कभी -कभी तो लगता है कि अपनी कर्तब्य निष्ठा से दूर यह शासन- प्रशासन भी तथाकथित आधुनिकता की गिरफ्त में है । किसी को ध्यान नहीं है कि मौजूद तंत्र सवा सौ करोड़ जनसँख्या केलिए नाकाफी एवं  कालातीत है ।
                          सामयिक होगा कि अश्लील आधुनिकता की रोकथाम केलिए पारदर्शी कदम उठायें जांय और अपराधिओं पर त्वरित कार्यवाही कर उनमें खौफ पैदा किया जाय । इसके लिए एक ऐसी संस्कृति स्थापित हो जिसमें सभीलोग अश्लील आचरण के बिरुद्ध आवाज उठाने केलिए शपथबद्ध हों । इस कड़ी में अबभी क्या फ़िल्म सेंसर बोर्ड बिना लाग -लपेट के स्वीकार करेगा कि समाज में तेजी से फ़ैल रही अशिष्ठता ,अश्लीलता ,विकृत यौनाचार एवं हिंसा केलिए जिम्मेदार भारतीय सिनेमा पर अंकुश लगाने में वह फेल रहा है।इस बोर्ड को छठे ,सातवें या आठवें दशक की फिल्मों एवं आजकी फिल्मों में अंतर तो दिखता और सुनाई देता होगा ।   आधुनिक महिलाओं को मासूमों के साथ यौन -अपराध केलिए जिम्मेदार ठहराने से पहले यह जिम्मेदारी भी तय की जानी चाहिए कि उन्हें ऐसी आधुनिकता किसने मुहैया कराई ।
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अंततः -
             यदि कुछ सुन्दर है तो उससे जुड़ें , शर्त यह कि वह कल्याणकारी हो ।
             यदि कल्याणकारी है तो उसपर समर्पित हों, शर्त यह कि वह सत्य हो।
             परन्तु वह कुछ सत्य है कि नहीं, इसका निर्णय केवल सन्दर्भ करते हैं ।
14 March 2013                                                            Mangal-Veena.Blogspot.com
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