मंगलवार, 27 मार्च 2012

बेबस नगरी- अंधा न्याय

बेबस नगरी में कुत्ते गरीब श्रेणी में आते थे। गरीब इसलिए कि उन पर योजना आयोग वालों का ठीक से ध्यान नहीं गया था। उनका तो कहना था कि गरीबी कोई दशा या स्थिति नहीं बल्कि परिभाषित करने का तरीका ही तो है। मालिको से भर पेट खाना न मिलने पर भी वे कुत्ते रात भर नगर में भूंकते-फिरते थे ताकि लोग जागते रहें और उनका देश रात्रि में चोर-डकैत, भ्रष्टाचारी एवं आक्रान्ताओं से सुरक्षित रहे। कालांतर में वही चोर-डकैत, भ्रष्टाचारी एवं आक्रान्ता बेबस नगरी की सत्ता पर आसीन हो गये और अपने को सर्वहारा वर्ग का प्रतिनिधि मनवा बैठे। जंगल संस्कृति के पौ-बारह हो आये। गरीबो की और दुर्गति निश्चित थी। सरकारी आदेश हुआ कि   पूरे राज्य में कुत्तो की धर-पकड़ की जाय। उनपर शांति भंग एवं देश-द्रोह का अभियोग(मुक़दमा) चलाया जाय क्योकि पूर्व शासन में इन्होने नागरिको को कभी रात में शांति से सोने नही दिया, लोगो की स्वतंत्रता में खलल डाला और ये अमन चैन के शत्रु रहे।
       राजाज्ञा की हवा फैलते ही सर्वत्र भगदड़ मच गया। झुण्ड के झुण्ड कुत्ते भाग निकले। उनके साथ एक ऊँट भी भगा जा रहा था। नगर सीमा बाहर होते-होते बेबस नगरी में गहरी रूचि लेने वाले एक पत्रकार ने ऊँट से पूछा  "अरे ऊँट भाई! इन कुत्तो के साथ तुम क्यों भागे जा रहे हो?" हांफते हुए ऊँट बोला "दोहरा संकट है पत्रकार भाई!  पकडे जाने पर मुझे ही सिद्ध करना होगा कि मैं कुत्ता नहीं हूँ। न्याय तो अंधा है। फिर मुझे ही प्रमाण देना होगा कि यदि मैं कुत्ता हूँ तो भी देश-द्रोही नही हूँ। हो सकता है कि कल इन कुत्तो का दिन बहुरे और बेबस नगरी इनका स्वागत करे ।परन्तु मेरी स्थिति तो कुत्तों से भी बदतर हो गयी है। बेबस नगरी से मेरा यह पलायन अंतिम ही है।" यही है बेबस नगरी एवं उसका अंधा न्याय ।
       जहाँ शक्तिशाली लोग सत्य एवं झूठ की परिभाषा बदलने में लगे हों एवं समाज में नैतिकता उन्मूलन की होड़ मची हो वहा न्याय को भी विवश होते एवं उससे लोगो का विश्वाश उठते देखा जा सकता है।

      अंततः अन्नाई विचार :-
                                                     झुकता तो वही है जिसमे जान होती है,
                                                     अकड़ना  तो मूर्ख की पहचान होती है।   

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